वीरेंद्र चौहान, नजरिया न्यूज ब्यूरो, किशनगंज, 07अगस्त।
24 अगस्त, 1975 को एयर इंडिया के विमान से शेख़ हसीना और उनका परिवार दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पहुंचा।
कैबिनेट के एक संयुक्त सचिव ने उनको रिसीव किया। पहले उनको रॉ के 56, रिंग रोड स्थित सेफ़ हाउस में ले जाया गया।
बाद में उनको डिफेंस कॉलॉनी के घर में स्थानांतरित किया गया। दस दिनों के बाद 4 सितंबर को रॉ के एक अफ़सर उन्हें लेकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास 1, सफ़दरजंग रोड पहुंचे।
शेख़ हसीना ने इंदिरा गांधी से मिलने के बाद उनसे पूछा, “क्या आपको पूरी जानकारी है कि 15 अगस्त को हुआ क्या था?”
वहाँ मौजूद एक अफ़सर ने बताया कि उनके परिवार का कोई सदस्य जीवित नहीं बचा है। ये सुनते ही शेख़ हसीना रोने लगीं।
शेख़ हसीना के जीवनीकार सिराजुद्दीन अहमद लिखते हैं, “इंदिरा गाँधी ने हसीना को गले लगा कर दिलासा देने की कोशिश की। उन्होंने कहा आपके नुक़सान की भरपाई नहीं की जा सकती। आपका एक बेटा और एक बेटी है।आज से आप अपने बेटे को अपना पिता और बेटी को अपनी माँ समझिए।
सिराजुद्दीन अहमद के अनुसार शेख हसीना के भारत प्रवास के दौरान इंदिरा गाँधी से उनकी यही एक मुलाकात थी. जबकि रॉ के ख़ुफ़िया अधिकारियों का कहना है कि शेख़ हसीना और इंदिरा गाँधी के बीच कई मुलाकातें हुई थीं।
इस मुलाकात के दस दिन बाद शेख़ हसीना को इंडिया गेट के पास पंडारा पार्क के सी ब्लाक में एक फ़्लैट आवंटित कर दिया गया। इसमें तीन शयनकक्ष थे और थोड़ा बहुत फ़र्नीचर भी था. धीरे-धीरे उन्होंने कुछ फ़र्नीचर खरीदना शुरू किया।
उनको सख़्त ताकीद की गई कि वो लोगों से मिले जुलें नहीं और न ही घर से बाहर निकलें। उनको व्यस्त रखने के लिए उन्हें एक टेलीविजन भी दिया गया।
*पहली बार दिल्ली में शरण लेनी का इतिहास:*
15 अगस्त, 1975: शेख़ हसीना, उनके पति डाक्टर वाज़ेद और बहन रेहाना ब्रसेल्स में बांग्लादेश के राजदूत सनाउल हक के यहाँ ठहरे हुए थे। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के अनुसार वहाँ से उनको पेरिस जाना था, लेकिन एक दिन पहले ही डाक्टर वाज़ेद का हाथ कार के दरवाज़े में आ गया।
अभी वो लोग सोच ही रहे थे कि पेरिस जाएं या न जाएं, सुबह साढ़े छह बजे राजदूत सनाउल हक के फ़ोन की घंटी बजी।
दूसरे छोर पर जर्मनी में बांग्लादेश के राजदूत हुमायूं रशीद चौधरी थे।उन्होंने बताया कि आज सुबह ही बांग्लादेश में सैनिक विद्रोह हो गया है। आप पेरिस न जा कर तुरंत जर्मनी वापस आइए।
जैसे ही राजदूत सनाउल हक को पता चला कि सैनिक विद्रोह में शेख़ मुजीब मारे गए हैं, उन्होंने उनकी दोनों बेटियों और दामाद को कोई भी मदद देने से इंकार कर दिया।और तो और उन्होंने उनसे अपना घर छोड़ देने के लिए भी कहा।
2016 में शेख़ मुजीब की बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में उस घटना को याद करते हुए शेख़ हसीना ने कहा था, “हम जैसे उनके लिए बोझ बन गए, हालांकि उन्हें शेख़ मुजीब ने ही बेल्जियम में बांगलादेश का राजदूत बनाया था और वो एक राजनीतिक नियुक्ति थीं. उन्होंने हमें जर्मनी जाने के लिए कार देने से भी मना कर दिया।
बहरहाल वो लोग किसी तरह जर्मनी में बांग्लादेश के राजदूत हुमायूं रशीद चौधरी की मदद से जर्मनी पहुंचे।
इसके आधे घंटे के भीतर यूगोस्लाविया के दौरे पर आए बांग्लादेश के विदेश मंत्री डॉक्टर कमाल हुसैन भी वहां पहुंच गए।
उसी शाम को जर्मन प्रसारण संस्था डॉयचेवेले और कुछ जर्मन अख़बारों के संवाददाता उनकी टिप्पणी लेने राजदूत के घर आ गए।
शेख़ हसीना और उनकी बहन रेहाना इतने सदमे में थीं कि उन्होंने उनसे कोई बात नहीं की।
विदेश मंत्री कमाल हुसैन ने भी एक शब्द नहीं कहा, हालांकि वो वहाँ मौजूद थे।
राजदूत चौधरी ने ज़रूर कहा कि शेख़ की दोनों बेटियाँ उनके पास हैं।इस बीच यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने उनका हालचाल तो पूछा लेकिन ये तय नहीं हो पा रहा था कि ये लोग अब रहेंगे कहां?
हुमायूं रशीद चौधरी के बेटे नौमान रशीद चौधरी ने मशहूर बांगलादेशी अख़बार ‘द डेली स्टार’ के 15 अगस्त, 2014 के अंक में एक लेख लिखा।
‘बंगबंधुज़ डॉटर्स’ के नाम से लिखे लेख में उन्होंने बताया, “मेरे पिता ने एक राजनयिक समारोह में पश्चिमी जर्मनी में भारत के राजदूत वाई के पुरी से पूछा कि क्या भारत शेख़ हसीना और उनके परिवार को राजनीतिक शरण दे सकता है ? ”
”उन्होंने जवाब दिया वो पता करेंगे. अगले दिन वो मेरे पिता से मिलने उनके दफ़्तर आए और बोले कि आमतौर से भारत में राजनीतिक शरण देने की प्रक्रिया लंबी होती है। उन्होंने ही सुझाव दिया कि दिल्ली में आपकी काफ़ी ख्याति है क्योंकि आप आज़ादी से पहले वहाँ के बांग्लादेश मिशन के प्रमुख रह चुके हैं। आपको इंदिरा गाँधी और उनके सलाहकार डीपी धर और पीएन हक्सर पसंद करते हैं। आप क्यों नहीं उनसे संपर्क करते?”
पुरी की उपस्थिति में ही चौधरी ने डीपी धर और हक्सर को फ़ोन लगाया. लेकिन दोनों उस समय भारत से बाहर थे।
वो इंदिरा गाँधी को फ़ोन करने से हिचक रहे थे, क्योंकि उन दोनों के ओहदे में बहुत फ़र्क था। वो एक देश की प्रधानमंत्री थीं जबकि चौधरी सिर्फ़ एक मामूली राजदूत।
वो इंदिरा गांधी से कई बार मिल ज़रूर चुके थे, लेकिन पिछले तीन वर्षों से उनका उनसे कोई संपर्क नहीं था।
राजनीति में तीन साल का समय एक लंबा समय होता है।दूसरे भारत में उस समय आपातकाल लगा हुआ था और इंदिरा गाँधी ख़ुद अपनी परेशानियों से जूझ रही थी।
नौमान रशीद चौधरी लिखते हैं: जब कहीं से कुछ होने के आसार नहीं दिखाई दिए तो हुमायूं चौधरी ने थक-हार कर इंदिरा गांधी के दफ़्तर फोन मिलाया। ये नंबर उनको भारतीय राजदूत पुरी ने दिया था।चौधरी उम्मीद नहीं कर रहे थे कि ये कॉल टेलिफ़ोन ऑपरेटर के आगे तक जा पाएगी. लेकिन वो दंग रह गए जब इंदिरा गांधी ने खुद वो कॉल रिसीव की। उन्होंने इंदिरा गांधी को सारी बात बताई। वो बंगबंधु की बेटियों को राजनीतिक शरण देने के लिए तुरंत तैयार हो गई।
19 अगस्त को राजदूत पुरी ने चौधरी को बताया कि उन्हें दिल्ली से निर्देश मिले हैं कि शेख़ मुजीब की बेटियों और उनके परिवार के दिल्ली पहुंचाने की तुरंत व्यवस्था की जाए।