- सब कुछ जानते हुए भी प्रभु श्रीराम ने अपने भाई की प्रेम, भक्ति और स्नेह से अभिभूत होकर भरत की बातें मानने के लिए तैयार थे। परन्तु उन्हें अपने पिता को दिए वचन को निभाना भी आवश्यक था। इसलिए प्रभु श्रीराम ने अपने परिवार एवं साम्राज्य की मर्यादा और पुरुषार्थ की रक्षा के लिए उन्होंने भरत के आग्रह को ठुकरा दिया।
कुशेश्वरस्थान ः
स्वार्थ अपने जीवन में नहीं लाना चाहिए। लोगों को किसी प्रकार के लोभ और स्वार्थ रहित अपने जीवन में ही प्रभु की भक्ति होती है। जब आत्म पिपासा खत्म हो जाती है तो भगवान स्वतः सहज रूप से अपने भक्तों पर कृपा करते हैं। उक्त बातें कुशेश्वरस्थान पूर्वी प्रखंड अंतर्गत तिलकेश्वर पंचायत के गोलमा गांव में हो रहे श्री श्री 1008 महा विष्णु यज्ञ में आयोजित श्रीराम कथा के छठे दिन अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कथा वाचिका देवी प्रतिभा जी ने कही। उन्होंने कहा कि प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र से मनुष्य का पारिवारिक संबंधों के महत्व स्थापित होता है। रामचरित मानस में गुरु, माता- पिता,भाई- बहन,पुत्र- पुत्री, पति-पत्नी और मित्र आदि का कर्तव्य बोध की शिक्षा देती है। उन्होंने कथा को आगे बढ़ाते हुए प्रभु श्रीराम के वन गमन की कथा को विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि बिना सोचे-समझे किसी को भी कोई ऐसा वचन या वरदान नहीं देनी चाहिए जिससे परिवार पर मुसीबत खड़ी हो जाए। कहा कि राजा दशरथ जी ने किसी समय अपनी रानी केकयी को दो वरदान मांगने के लिए वचन दिया था। वहीं वरदान अयोध्या के साम्राज्य पर कहर बनकर टूट पड़ा। श्रीराम सीता और लक्ष्मण को चौदह वर्षों के लिए बनवास जाना पड़ा। प्रिय पुत्र राम के वियोग में दशरथ जी का निधन हुआ। वैसे जिन्हें श्रीराम कथा का समझ है वह तो इसे विधि का विधान समझकर समझौता कर लेते हैं। लेकिन मनुष्य को कोई भी कदम सोच समझकर उठाना चाहिए। ताकि भविष्य में उनके परिणाम उल्टा न पर जाए। कहा कि यहां दो बातें स्पष्ट होती है। एक तो प्रभु श्रीराम का मर्यादित व्यवहार और पिता की आज्ञा का पालन। वहीं दूसरी ओर भरत का अपने बड़े भाई श्रीराम के प्रति निश्छल प्रेम और भक्ति। वैसे तो मानव स्वभाव से ही स्वार्थी होता है। लेकिन भरत ने अपनी माता के अयोध्या का सम्राट बनाने की इच्छा को त्याग दिया और गुर के साथ मंत्रणा कर बड़े भाई श्रीराम जी को वापस अयोध्या बुलाने की जीद कर बैठे और चित्रकूट की ओर निकल पड़े। रास्ते में जिन जिन लोगों से भगवान श्री राम ने मुलाकात की थी उनके प्रति श्रद्धा, सद्भाव और प्रेम की भावना प्रदर्शित करते हुए भरत श्री राम जी के पास पहुंच कर उन्हें अयोध्या वापस चलने का अनुनय विनय किया। देवी प्रतिभा जी ने कहा कि सब कुछ जानते हुए भी प्रभु श्रीराम ने अपने भाई की प्रेम, भक्ति और स्नेह से अभिभूत होकर भरत की बातें मानने के लिए तैयार थे। परन्तु उन्हें अपने पिता को दिए वचन को निभाना भी आवश्यक था। इसलिए प्रभु श्रीराम ने अपने परिवार एवं साम्राज्य की मर्यादा और पुरुषार्थ की रक्षा के लिए उन्होंने भरत के आग्रह को ठुकरा दिया और भाई भरत को अपनी प्रतिमूर्ति के रूप खड़ाउं देते हुए वापस लौटने को कहा। भरत ने उसी खड़ाऊं को अपने जीवन का आधार मानकर गुरु देव को अयोध्या का उत्तराधिकारी बनाकर स्वयं श्रीराम की तरह एक त्यागी और बनवासी के रूप में 14 वर्षों तक तपस्या की। कथा के बीच बीच में प्रसंग आधारित संगीतमय भजन कीर्तन से श्रोता भक्ति के सागर में गोते लगाते रहे।