- राजद के अघोषित सुप्रीमो तेजस्वी प्रसाद यादव का एकल रहा चुनाव अभियान
- वीआईपी सुप्रीमो मुकेश सहनी को लटकाये घूमते रहे तेजस्वी
नजरिया न्यूज पटना।
यह हर कोई मानता है कि एनडीए 2019 में जितना समन्वित और एकताबद्ध रह चुनाव लड़ा था वह राजनीतिक गठबंधनों के लिए मिसाल था. वैसा सामंजस्य इस बार के चुनाव में नहीं है. तब एकता व समन्वय राजधानी स्तर पर बड़े नेताओं तक ही सीमित नहीं था, सरजमीं पर भी उसी रूप में दिखा था. इस बार बड़े नेताओं में समन्वय तो है, पर सरजमीं पर यह छितराया हुआ नजर आ रहा है. औरंगाबाद, गया, नवादा, पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार, अररिया,मुंगेर, बेगूसराय आदि निर्वाचन क्षेत्रों में यह खुले रूप में परिलक्षित हुआ है.
धारा के विपरीत मतदान
हैरान करने वाली बात यह कि मुंगेर में जाति विशेष के जदयू समर्थकों की बात छोड़ दें, नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भी कथित रूप से अपने दल के उम्मीदवार राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह का साथ नहीं दिया. नीतीश कुमार के नेतृत्व को नकार प्रायः सब के सब बाहुबली के बहकावे में आ जातिवाद में बह गये. ऐसा कहा जाता है कि नवादा और औरंगाबाद में भी जदयू समर्थक सामाजिक समूहों ने एनडीए की धारा के विपरीत मतदान किया. बेगूसराय में भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ. इससे यह भी स्पष्ट हो जा रहा है कि जदयू समर्थक सामाजिक समूहों पर नीतीश कुमार की पूर्व जैसी पकड़ अब नहीं रह गयी है.
समन्वय का घोर अभाव
महागठबंधन की बात करें, तो 2019 में इसमें आपसी तालमेल का नितांत अभाव था. घटक दलों ने कहीं एकजुट प्रचार अभियान नहीं चलाया. कांग्रेस सहयोगी दलों से अलग-थलग रही. उस वक्त के उसके सहयोगी जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी अपने ही धुन में रमे रहे. राजद के अघोषित सुप्रीमो तेजस्वी प्रसाद यादव काफी सक्रिय रहे. सक्रियता उनकी सहयोगी दलों के निर्वाचन क्षेत्रों में भी रही, पर अकेले-अकेले. शीर्ष स्तर के इस हालात का असर नीचे अधिक दिखना था, वह दिखा भी. महागठबंधन के नेताओं-कार्यकर्त्ताओं में आपसी समन्वय और सद्भाव का घोर अभाव था. परिणाम सिर्फ एक जीत के रूप में सामने आया.
एकल चुनाव अभियान
2024 में उसकी पुनरावृत्ति हो रही है. महागठबंधन के नेताओं का कोई संयुक्त चुनाव अभियान नहीं चल रहा है. राहुल गांधी की सिर्फ एक चुनावी सभा हुई. तेजस्वी प्रसाद यादव के साथ भागलपुर में. उसके बाद कहीं कुछ नहीं. सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी ने भी बिहार से दूरी बना रखी है. राजद के हिस्से की सीटों पर तेजस्वी प्रसाद यादव का ‘एकल चुनाव अभियान’ चल रहा है. राजद के दूसरे किसी नेता की कहीं कोई मौजूदगी नहीं रहती है. लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और तेजप्रताप यादव की भी नहीं. तमाम नेता घरों में ही गुनते-कुढ़ते रहते हैं. तेजस्वी प्रसाद यादव के साथ केवल वीआईपी सुप्रीमो मुकेश सहनी रहते हैं.
लटकाये घूमते हैं
याद होगा, 2009-10 के चुनावों में ऐसे ही एक चर्चित अल्पसंख्यक चेहरे को लालू प्रसाद भी लटकाये घूमते थे. तेजस्वी प्रसाद यादव दूसरे घटक के क्षेत्रों में जाते हैं तो करीब-करीब ऐसा ही दृश्य दिखता है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की समस्तीपुर और मुजफ्फरपुर में सभा हुई. मंच पर राजद का कोई बड़ा नेता नजर नहीं आया. हो सकता है यह महागठबंधन की रणनीति हो, पर सामान्य लोग इसे समन्वय के अभाव के रूप में ही देख रहे हैं.
सफल नहीं हुई रणनीति
महागठबंधन की एक कमजोरी यह भी है. इसने एनडीए के सामने एक क्षेत्र में एक प्रत्याशी देने की रणनीति तय की थी, पर 2019 की तरह ईमानदार राजनीतिक तैयारी के अभाव में यह मुकम्मल रूप में सफल नहीं हो पायी. नये- नये ‘कांग्रेसी’ बने राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव और राजद की बहुचर्चित नेता हीना शहाब समेत अनेक नेता चुनाव मैदान में कूद पड़े या भीतरघातियों के मार्गदर्शक बन गये. हालांकि, यह सब चुनावों की आम राजनीतिक परिघटना है- पंचायत से लेकर संसद तक की.
कुछ तो सिला देंगे ही
चूंकि राजनीति अब ‘कमाऊ और धन उगाऊ’ पेशा बन गयी है, लिहाजा सेवा की आड़ में मेवा के लिए राजनीति में आ रही नयी पीढ़ी जल्द से जल्द सब कुछ हासिल कर लेना चाहती है. भौतिक सुख साधन के सभी उपकरण इकट्ठा कर लेना चाहती है… इसीलिए चुनावों की आहट के साथ पार्टियों में नेताओं- कार्यकर्त्ताओं की आवाजाही काफी बढ़ जाती है. हितों के टकराव और लाभ-लोभ के सागर में तैर रहे लोग अपनी ‘उपेक्षा’ का कुछ तो सिला पार्टी को देंगे ही न!