दुर्केश सिंह/अशोक सुबेदार, नजरिया न्यूज,19नवंबर।
अक्सर इस नारे को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ जोड़कर देखा जाता है,जो बंटेगा वह कटेगा।योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक भी हैं। फिलहाल 15 अक्तूबर को चुनावी बिगुल बजते ही राजनीतिक दलों के वादे और दावे जनता के सामने हैं। 20 नवंबर को विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग होनी है।
बीते पांच वर्षों में राज्य की सियासत में कई भूचाल आए हैं। कई नए दलों का गठन हुआ है। पुरानी वफ़ादारियां तार-तार हुई हैं।दलों और मंझे हुए सियासतदानों के भीड़ में आगे कौन निकलेगा इसके क़यास लगाना जोखिम भरा काम नहीं रह गया है। रंगे सियार की हार सुनिश्चित हो चुकी है।साधु बने भेड़िया को अपना मत भेंड़ें नहीं देगी। जिस भेड़िया को नाश्ते में भेंड़ का दुधमुंहे बच्चे चाहिए। लंच में भेड़ चाहिए। ऐसे रंगे सियार के कहने पर मतदान नहीं होने जा रहा है।
महाराष्ट्र में बीजेपी महायुति गठबंधन का हिस्सा है। एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी इस गठबंधन में बीजेपी के सहयोगी हैं। बीजेपी बेहद सावधान भी है।बंटेगे तो कटेंगे’ की आलोचना बढ़ती देख बीजेपी ने शब्दों को थोड़ा बदल दिया और ये बदलाव भी किसी और ने नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने किया।उन्होंने एक नया नारा उछाला- ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’।
नारा बदलते ही बीजेपी ने अगले दिन महाराष्ट्र के सभी प्रमुख अख़बारों में ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ का विज्ञापन दे दिया।
बीजेपी का ‘कटेंगे तो बंटेंगे’ के नारे का पार्टी के अपने नेताओं और सहयोगियों की ओर से विरोध चौंकाने वाला है। क्योंकि ये पार्टी अपने आंतरिक अनुशासन के लिए जानी जाती है।
लेकिन आज की तारीख़ में कोई भी पार्टी एक भी वोट गंवाना नहीं चाहती. न अजित पवार और न पंकजा मुंडे।
पार्टी के अंदर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का विरोध यहीं तक नहीं रुका।राज्य में बीजेपी के नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल और अशोक चह्वाण ने भी इसे लेकर नाखुशी जताई।
इसलिए पार्टी को थोड़ा झुकना पड़ा। देवेंद्र फडणवीस ने मामले को ये कहकर ठंडा करने की कोशिश की कि इस नारे को विभाजनकारी लेंस से नहीं देखा जाना चाहिए।
लेकिन सवाल ये नहीं है कि बीजेपी ने इस नारे के शब्दों को कितनी फुर्ती से बदला। बल्कि सवाल ये है कि इस चुनाव में बीजेपी का कितना कुछ दांव पर लगा है। ये इससे ही ज़ाहिर होता है कि इसके नेता भी ‘पार्टी लाइन’ के आगे झुकने को तैयार नहीं दिख रहे हैं।
फिलहाल साल 1960 में अस्तित्व में आए महाराष्ट्र राज्य का यह चुनाव आम मतदाताओं के जागरूकता पर निर्भर करेगा। संविधान भी सुर्खियों में है।
पिछले चार महीनों के दौरान महाराष्ट्र में ज़मीनी हालात नहीं बदले हैं।इसलिए इस चुनाव में भविष्यवाणी करना या पहले से कुछ अनुमान लगा लेना कठिन नहीं है।
इस स्थिति के लिए राज्य में पिछले पांच साल से चल रही कुर्सी की लड़ाई ज़िम्मेदार है.
साल 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता के लिए इस राज्य में जिस तरह का खेल चला, वैसा किसी राज्य में नहीं दिखा.